Menu
blogid : 7980 postid : 860188

Women’s Day

उद्गार
उद्गार
  • 61 Posts
  • 22 Comments

बहुत आधुनिक …मॉडर्न कहलाने को इच्छुक लोगों में एक प्रवृत्ति आज प्रायः समान है – विशिष्ट दिवस मनाने की । Women’s Day मनाये जाने का रिवाज़ / परम्परा आधुनिकता और नारी “स्वतन्त्रता का पर्याय बन चुका है . 08 – 03 -1975 से यह संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इस दिन विमेंस डे मनाये जाने हेतु निर्धारित किया है . आर्थिक , सामाजिक और राजनीतिक सशक्तिकरण की दिशा में उपलब्धियों को रेखांकित करने के लिए यह दिन निर्धारित किया गया है.

आधुनिक समय में 28 फ़रवरी 1909 के दिन अमेरिका की सोशलिस्ट पार्टी ने विमेंस डे पहले पहल मनाया. वर्ष 2015 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा “Empowering Women, Empowering Humanity: Picture it!” थीम पर आधारित दिवस मनाया जा रहा है.

यह तो था एक संक्षिप्त रूप में आधुनिक इतिहास . किन्तु यह सिर्फ संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रयास ही से हो रहा है और प्राचीन भारत में नारी सम्मान और उन के सामर्थ्य को प्रमुखता नहीं थी , ऐसा बिलकुल नहीं है.

भाषाविद / भाषा शास्त्री बताते हैं किसी साहित्य में शब्द का प्रयोग होने का अर्थ है …समाज में स्वीकार्यता । अर्थबोध मौजूद होता है और शब्द प्रचलन में आ जाता है ।

अपने एक लेख में श्री विद्यालंकार [सेवा-निवृत्त प्राचार्य एस.डी.पी.जी.कालेज] लिखा है —

“विदुषी पंडिता स्त्री को कहा जाता है। भारतीय साहित्य में अनेक विदुषी महिलाओं का वर्णन प्राप्त होता है। नारी को संसार का सबसे बहुमूल्य रत्न कहा गया है। वेद के अनुसार नारी को परिवार रूपी वृत्त का व्यास अथवा ध्रुव – बिंदु कहा गया है। वैदिक युग में पुरुषों के समान नारी को भी यज्ञादि अनुष्ठान करने और वेदादि शात्रों के पठन- पाठन का पूर्ण अधिकार था। अर्थात नारी विदुषी हुवा करती थी। ऋग्वेद के अनुसार उपनयन – यज्ञोपवीत संस्कार भी होता था। ” यज्ञे दधे सरस्वती ” का तात्पर्य — सरस्वती के रूप में नारी ही है। वैसे भी विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती और शारदा ही हैं ; यह भी नारी के विदुषी होने का सर्वप्रमुख प्रमाण ही है। वैदिक ऋषियों में घोषा , विश्ववारा आदि तथा उपनिषदों में गार्गी ,मैत्रेयी आदि विदुषी नारियों का उल्लेख मिलता है। व्याकरण,दर्शन एवं शास्त्रों को पढ़ाने वाली विदुषी नारी को उपाध्याया और आचार्या के गौरवपूर्ण विशेषण दिए गये हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि वैदिक युग में नारी का स्थान एक प्रकार से पुरूष से भी ऊंचा माना जाता था ; उस समय नारी का विदुषी रूप उभर कर आता था। वेद में नारी को सम्राज्ञी और पुरन्ध्री आदि कह कर उसे गौरवान्वित किया गया है। ”

अपने इसी लेख में वह आगे लिखते हैं कि

जिस कुल में नारी कि पूजा होती है , अर्थात उसका सत्कार होता है, उस कुल में दिव्य गुण , दिव्य भोग दिव्य संतान का वास होता है। जिस कुल में इनकी पूजा नहीं होती ; उस कुल के सुख – प्राप्ति के सभी उपाय निष्फल होजाते हैं। यथा —

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ॥

इस का भाव मैं यह समझता हूँ कि व्यक्तियों से परिवार , परिवारों से कुल, अनेक कुलों से समाज, समाज से ग्राम / शहर और इनसे राज्य और राज्यों का संघ हमारा देश है. व्यक्तियों में स्त्रियाँ और पुरुष दोनों ही हैं. दोनों को कहीं भी गौण प्राचीन काल से ही नहीं माना गया .
तो जहाँ नारी सम्मान को कुचला जाता है उस परिवार ( फलतः राष्ट्र ) की सुख प्राप्ति के सभी उपाय निष्फल होंगे..यही सन्देश है.

श्री विद्यालंकार ने आगे बताया है कि

“…. वैदिक पुरुष वैदिक विदुषी नारी को ऋचा के समतुल्य मानता है। साथ ही वह उसे पृथ्वी के समान धृति – सम्पन्न एवं क्षमा- शीला भी स्वीकार करता है। नारी के विदुषी रूप को स्पष्ट करते हुवे मनु महाराज का कथन है कि — दस उपाध्यायों की अपेक्षा आचार्य , सौ आचार्यों की अपेक्षा पिता और हजार पिताओं की अपेक्षा माता का महत्त्व अधिक होता है।

अब इस से अधिक पुष्ट और क्या प्रमाण होगा ?

उपनिषदों में नारी को अग्नि- स्वरूपा कहा गया है। वास्तव में पुरुष और नारी एक ही तेज की दो ज्योतियाँ हैं। यदि पुरुष जीव रूप में विचरण करता है तो नारी बुद्धि बन कर उसे सहयोग प्रदान करती है; यह नारी के तेजस्विता एवं विदुषी-मय स्वरूप को अभिव्यक्त करता है। पुरुष यदि क्रोध है तो नारी शांति है, नर यदि नद है तो नारी नदी है ; नर यदि भर्ता है तो नारी भार्या है ; नर यदि गृहपति है तो नारी गृहलक्ष्मी है। वास्तव में गृहलक्ष्मी की यह भावना ही नारी के उदात्त रूप को अनुभूति प्रदान करती है।….”

“दुर्गा सप्तशती ” में नारी विविध रूपों में वन्दनीय एवं वन्दिता है। मातृरूप जहाँ विशेष रूप से अभिव्यक्त हुवा है वहां बुद्धि रूप में उसकी प्रार्थना कर उसके विदुषी रूप की अभ्यर्थना की गयी है। यहाँ तक माता को गुरु के रूप में स्वीकार क्या गया है। संस्कृत वांग्मय में ऐसे अनेक प्रसंग हैं , जिसमें नारी को त्रैलोक्य की माता , त्रिभुवन का आधार और शक्ति का स्रोत सिद्ध किया गया है।

शिव पार्वती संवाद को भी श्री विद्यालंकार ने उद्धृत किया और उस के माध्यम से नारी के सम्बन्ध में यह कहा गया है कि नारी के समान न सुख है , न गति है , न भाग्य है, न राज्य है, न तप है, न तीर्थ है, न योग है, न जप है, न धन है और न मंत्र है। नारी के समान इस धरा- धाम पर न कुछ था , न है और न होगा। उन्हों ने नारी को पूजनीया एवं मनीषा में परम विदुषी स्वीकार क्या है।

वेद में भी ” मात्रिमान पित्रिमान आचार्यवान पुरुषो वेद ” के अनुसार माता को विदुषी के रूप में सर्वप्रथम गुरु बताया गया है।

महाभारत में भी द्रौपदी और उत्तरा को पूर्ण विदुषी कहा गया है।

विदुषी नारी ही श्रद्धेय है , यथा —
“नारी ! तुम श्रद्धा हो , विश्वास रजत नग पगतल में ।
पीयूष – स्रोत – सी बहा करो , जीवन के सुन्दर समतल में॥ “

Tags:   

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh