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इन्टरनेट पर पठित एक कहानी पढ़िए
एक वीरान इलाक़े से छोटे पहलवान गुज़र रहा था। अचानक चार लठैतों ने घेर लिया।
“जो कुछ है निकाल दे… जल्दी!”
छोटे ने कहना नहीं माना, बस होने लगा घमासान। धुँआधार झगड़ा हुआ। पहलवान आकाश – पाताल एक करवाने के बाद ही क़ाबू में आया। छोटे ने अपनी अंटी कसके मुट्ठी में दबा रखी थी, जो खुलने का नाम ही नहीं ले रही थी। आख़िर जैसे-तैसे अंटी खुली और अंटी से निकली सिर्फ़ एक चवन्नी!
“एक चवन्नी ? वो भी सरकार ने अब बन्द कर दी है !” एक बोला।
“इतनी कोशिश करके तो ओलम्पिक में मैडल मिल जाता…
और ये चवन्नी के पीछे लड़ रहा था ?” -दूसरा बोला।
चारों डक़ैत और छोटे पहलवान थक कर पस्त हो चुके थे।
“यार बीड़ी ही निकाल लो” एक डक़ैत बोला।
छोटे पहलवान ने बड़े सम्मान के साथ जेब से बीड़ी निकाल कर पेश की।
अब दृश्य बदल चुका था…सबकी आपस में जान पहचान हो जाने पर एक डक़ैत ने पूछा-
“तुम्हारे पास सिर्फ़ एक चवन्नी थी और तुम इतनी भयानक लड़ाई लड़ रहे थे?”
इस पर छोटे ने अपने जूते में छुपाया हुआ हज़ार का नोट निकाल कर दिखाया
“ये देखो!”
“अरे! तुमको डर नहीं लग रहा कि हम तुमसे ये नोट छीन लेंगे?
“सवाल ही नहीं उठता!” छोटे ने विश्वास के साथ कहा।
“क्यों ?”
“देखो गुरु! तुम समझ गये हो कि जब मैं चवन्नी के लिए तुम चारों से इतना भीषण युद्ध कर सकता हूँ, तो फिर हज़ार रुपये के लिए तो पूरी बटालियन से लड़ जाऊँगा। इसलिए तुमको नोट दिखाने में कोई समस्या नहीं है।”
छोटे पहलवान का लक्ष्य था अपनी अंटी की सुरक्षा करना। इससे कोई मतलब नहीं था कि अंटी में चवन्नी है या हज़ार रुपए और इस लक्ष्य के लिए उसने भीषण लड़ाई लड़ी।
स्वामी विवेकानंद अक्सर देश-विदेश के दौरे पर रहते थे। जगह-जगह पर उनके भाषण हुआ करते थे। 14-15 वर्ष की कच्ची उम्र के नरेन (विवेकानंद का बचपन का नाम) पर, 1876-78 के समय भारत में पड़े भीषण अकाल का गहरा असर पड़ा। बाद में भी वर्षों तक अकाल की विभीषिका भारत में अपनी काली छाया से बर्बादी करती रही। विवेकानंद अकाल के समय ध्यान और प्रवचन छोड़ कर अकालग्रस्त लोगों की सहायता करने में लग जाते थे और दिन-रात उसमें लगे रहते थे। एक बार, उनके सम्पर्क के लोगों को एतराज़ हुआ, जिनमें से कुछ संन्यासी भी थे। वो चार-पांच लोग उनके पास आये और उनमें से एक नौजवान संन्यासी ने उनसे कहा-
“ये आप क्या कर रहे हैं ? स्वामी जी ! न तो ये आपका लक्ष्य है और न ही आपका कार्य। आपका लक्ष्य है भारत की संस्कृति से सम्बन्धित प्रवचन देना। सारे देश-दुनिया में उसे फैलाना और लोगों को जागृत करना। आपने तो ध्यान करना भी बंद कर दिया है।”
“अच्छा ठीक है… आज ध्यान ही करते हैं… तुम सही कह रहो हो, ध्यान करना आवश्यक है।” विवेकानन्द जी ने कहा –
जब सब ध्यानमग्न हो गए तो स्वामी जी ने एक पास में रखा हुआ डंडा उठाया और एक डंडा उस नौजवान संन्यासी की पीठ पर मारा, जब उसने आँखें खोली तो दो-तीन डण्डे और जमा दिए। वह एकदम उत्तेजित और परेशान हो गया। उसके साथ में जो तीन-चार लोग थे, वह भी एकदम से चौंक गए। वो खड़े हुए और कहने लगे-
“ये आप क्या रहे हैं ? आपने इस तरह से क्यों पीटना शुरू कर दिया ?”
इस पर स्वामी विवेकानंद ने कहा-
“क्या इन परिस्थिति में तुम ध्यान कर सकते हो ?
जब मैंने डंडा उठाया तो तुम डंडे से ख़ुद को बचाने में लग गये। ठीक यही स्थिति मेरी है। जब मेरे देश में अकाल पड़ा हुआ है, लोग भूखो मर रहे हैं, यहाँ तक कि ग़रीब स्त्रियों ने अपने बच्चे बेच दिए, लोग भूख की वजह से अपने हाथ खा गये और तुम चाहते हो कि मैं अकाल राहत कार्य छोड़ कर ध्यान, योग और संस्कृति की बातें करूँ ? इस समय मेरा लक्ष्य, लोगों को अकाल से बचाना है और यही है सच्ची ‘साधना'”
अपनी इन विलक्षणताओं के कारण ही स्वामी विवेकानन्द को आज सम्मानपूर्वक याद किया जाता है।
साधक, साधना और साध्य; इन तीनों में क्या महत्त्वपूर्ण है ? लक्ष्य क्या होना चाहिए ? फल की इच्छा न करने के लिए गीता में क्यों लिखा है ?
साध्य वह लक्ष्य है, जिसे आप प्राप्त करना चाहते हैं। साधना उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, जो कुछ आप कर रहे हैं, वो है। आपके क्रियान्वयन हैं, आपके प्रयास हैं और साधक, साधक आप हैं। क्या महत्त्वपूर्ण है इन तीनों में? हमेशा यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि सबसे महत्त्वपूर्ण साधना होती है। लक्ष्य महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण आप भी नहीं हैं। महत्त्वपूर्ण है वह साधना। इस साधना के बल पर ही, आप कुछ रचना कर सकते हैं, कुछ ख़ास बन सकते हैं, महत्त्वपूर्ण बन सकते हैं। इसे समझा कैसे जाए?
एक कहावत है “या तो कुछ ऐसा करो कि लोग उस पर लिखें या कुछ ऐसा लिखो कि लोग उसे पढ़ें”
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